
महानिदेशक, रेलवे सुरक्षा बल (RPF)
21 जुलाई 2025, दोपहर का समय… न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन पर हमेशा की तरह चहल-पहल थी। कोई ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहा था, कोई परिजनों को विदा कर रहा था, और प्लेटफॉर्म पर लगे लाउडस्पीकरों से गूंजती उद्घोषणाएं रोज़मर्रा की तरह वातावरण में घुली हुई थीं। लेकिन इस सामान्य सी भीड़ के बीच कुछ ऐसा था जो असामान्य था। कुछ मासूम आंखें डरी हुई थीं, कुछ चेहरों पर मजबूरी का सन्नाटा था।

इन्हीं अनकहे संकेतों को समझ लिया महिला उप निरीक्षक सारिका कुमारी ने। एक गुप्त सूचना के आधार पर उन्होंने GRP के सहयोग से ट्रेन संख्या 13245 DN में सघन तलाशी अभियान शुरू किया। एक-एक कोच में जाकर उन्होंने जो देखा, उसने हर किसी को झकझोर दिया—56 किशोरियाँ, जिनकी उम्र महज 14 से 18 के बीच रही होगी, अलग-अलग कोचों में बैठी थीं। कोई कुछ नहीं बोल रही थी, कोई नजरें चुरा रही थी।
पूछताछ में सामने आया कि ये लड़कियाँ नहीं जानतीं कि उन्हें कहाँ ले जाया जा रहा है। दो व्यक्ति—जीतेन्द्र कुमार पासवान और चंद्रिमा कर—उन्हें बेंगलुरु में नौकरी दिलाने के बहाने ले जा रहे थे। उनके हाथों पर स्याही से कोच और बर्थ नंबर लिखे हुए थे—सुनियोजित तस्करी का खतरनाक संकेत।
उन लड़कियों ने कोई अपराध नहीं किया था। उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे गरीब थीं।

जब रेलवे सुरक्षा बल बना उम्मीद की आखिरी किरण
भारत की रेलें केवल गाड़ियों का नेटवर्क नहीं, करोड़ों भावनाओं का संगम हैं। लेकिन इसी व्यवस्था का फायदा उठाकर तस्करी के सौदागर अपने धंधे को अंजाम देते हैं। RPF के लिए यह कोई पहली कार्रवाई नहीं थी, लेकिन हर बार की तरह यह भी दिल को छू लेने वाला अनुभव था।
पकड़े गए आरोपियों के पास कोई वैध दस्तावेज नहीं था। पूछताछ में लड़कियाँ ना तो अपने गंतव्य के बारे में बता सकीं और ना ही अपने घरों से निकलने की वजह। कुछ रो पड़ीं, कुछ बिल्कुल चुप थीं।
लेकिन उस दिन RPF ने सिर्फ एक अपराध रोका नहीं, 56 जिंदगियों को बर्बाद होने से बचा लिया।
“नन्हें फरिश्ते” – एक आंदोलन, एक संकल्प
RPF की मानव तस्करी के खिलाफ जंग कोई अचानक शुरू हुई पहल नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक संघर्ष है।
2020 में शुरू हुआ ऑपरेशन नन्हें फरिश्ते आज एक ऐसा प्रयास बन चुका है जिसने अब तक 64,000 से अधिक बच्चों को नई जिंदगी दी है। इनमें से हजारों बच्चे ऐसे थे, जो अगर RPF न पहुंचती, तो आज किसी कोठे, फैक्ट्री या गुमनाम अंधेरे में खो चुके होते।
आज देश के 135 बड़े रेलवे स्टेशनों पर यह अभियान सक्रिय है। हर टिकट परीक्षक, कुली, सफाईकर्मी, यहां तक कि प्लेटफॉर्म पर काम करने वाला हर कर्मचारी—अब सिर्फ मजदूर नहीं, संभावित रक्षक भी है।
तकनीक और तात्कालिकता—अब तस्करों की नहीं चलेगी चाल
आज RPF सिर्फ वर्दी पहनकर निगरानी नहीं कर रही, बल्कि डिजिटल इंटेलिजेंस और मानव अंतर्दृष्टि का संयोजन बन चुकी है।
CCTV कैमरे, फेस रिकग्निशन सिस्टम, सोशल मीडिया अलर्ट्स और ऑन-ग्राउंड प्रशिक्षण—ये सभी प्रयास तस्करों को मात देने की दिशा में काम कर रहे हैं।
अब ट्रेनें सिर्फ लोगों को गंतव्य तक नहीं पहुंचातीं, बल्कि उन्हें सुरक्षित भी रखती हैं।
जीवन में बदलाव: सिर्फ आंकड़ों से नहीं, संवेदनाओं से समझिए
साल 2021 से जुलाई 2025 के बीच RPF ने 2,912 तस्करी पीड़ितों को बचाया। इनमें 2,600 से अधिक नाबालिग और 264 वयस्क थे।
701 तस्कर गिरफ्तार किए गए। लेकिन ये आंकड़े सिर्फ संख्याएं नहीं हैं—ये छूटी हुई चूड़ियाँ, सिसकते सपने, और फिर से जीने की शुरुआत की कहानियाँ हैं।
इनमें कई लड़कियाँ अब स्कूल में हैं, कुछ सिलाई सीख रही हैं, और कुछ फिर से मुस्कुराना सीख गई हैं।
सिर्फ कार्रवाई नहीं, रोकथाम भी
RPF यह मानती है कि सिर्फ तस्करों को पकड़ना ही काफी नहीं है। बचाव से पहले की दीवार रोकथाम होती है।
स्टेशनों पर नुक्कड़ नाटक, पोस्टर, घोषणाएं और जागरूकता कैंप अब आम हो चुके हैं।
“हर बच्चा स्वतंत्र जन्म लेता है, उसे स्वतंत्र जीने दो”—यह कोई नारा नहीं, बल्कि हमारा उत्तरदायित्व है।
एक भारत, एक मिशन—तस्करी के खिलाफ हर कदम
21 जुलाई को न्यू जलपाईगुड़ी में बचाई गई 56 बच्चियाँ, RPF की कार्रवाई का उदाहरण नहीं, बल्कि समाज की जिम्मेदारी का आईना हैं।
मानव तस्करी छिपी होती है, रूप बदलती है, और वहीं हमला करती है जहां नजरें नहीं पहुंचतीं। लेकिन अगर हम सब—रेलवे, समाज, मीडिया और आम नागरिक—एकजुट हो जाएं, तो तस्करी को रोका जा सकता है।
क्योंकि हर बार जब एक ट्रेन बिना किसी शोषित पीड़ित के प्लेटफॉर्म पर पहुंचती है,
तब हम एक सुरक्षित भारत की ओर एक कदम और बढ़ जाते हैं।
