गरोठ (मंदसौर)।
आज़ादी के 78 साल और विस्थापन के 70 साल बाद भी खड़ावदा गांव मुक्तिधाम जैसी बुनियादी सुविधा से वंचित है। गांधीसागर डैम बनने के बाद 1962 में जब पुराना खड़ावदा गांव डूब क्षेत्र में चला गया था, तब ग्रामीणों को विस्थापित कर नया खड़ावदा बसाया गया। लेकिन विस्थापन के इतने वर्षों बाद भी इस गांव में मुक्तिधाम नहीं बन सका।

खड़ावदा गांव मुक्तिधाम से आज भी वंचित
आज भी पांच हज़ार से अधिक आबादी वाला यह बड़ा गांव तबाह और शर्मनाक हालात झेल रहा है। जब किसी घर में मौत होती है, तो परिजन शव को ट्रैक्टर पर रखकर उबड़-खाबड़ पगडंडियों से होते हुए लगभग 5 किलोमीटर दूर चंबल किनारे डूब क्षेत्र तक ले जाते हैं। बरसात के दिनों में दूरी तो घटकर 2 किलोमीटर रह जाती है, लेकिन रास्ता इतना दुर्गम हो जाता है कि अंतिम यात्रा किसी युद्ध जैसी चुनौती बन जाती है।

ग्रामीणों की पीड़ा – “हमें शर्म आती है”
गांव के लोग आंखों में आंसू और दिल में गुस्सा लिए कहते हैं –
“हमें शर्म आती है जब रिश्तेदारों के सामने हमें अपने ही परिजनों को ट्रैक्टर पर रखकर अंतिम यात्रा पर ले जाना पड़ता है। यह 21वीं सदी का सबसे बड़ा अपमान है।”
आज़ादी के 78 वर्षों के बाद भी यदि किसी गांव में श्मशान घाट तक न हो, तो यह सरकार और प्रशासन दोनों के लिए सबसे बड़ा सवाल है।
छोटे गांवों में शेड, बड़े गांव में बदहाली
विडंबना यह है कि सरकार छोटे-छोटे गांवों और यहां तक कि जंगलों तक में मुक्तिधाम और शेड बनवाकर अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर रही है। लेकिन खड़ावदा गांव मुक्तिधाम जैसी सुविधा से आज भी वंचित है। इतना बड़ा और ऐतिहासिक महत्व वाला गांव यदि ऐसी बदहाली झेल रहा है तो यह केवल शर्म की नहीं बल्कि इंसानियत पर भी सवाल खड़े करता है।
पंचायत और प्रशासन की असमर्थता
नया खड़ावदा गांव, सिमरोल ग्राम पंचायत के अंतर्गत आता है। यहां के सरपंच मुकेश रावत और पटवारी विकास वशिष्ठ ने यशस्वी दुनिया को बताया कि पंचायत क्षेत्र में शासकीय भूमि ही उपलब्ध नहीं है, इसी कारण मुक्तिधाम नहीं बन सका।
कई बार प्रयास किए गए, प्रस्ताव बनाए गए, लेकिन हर बार ज़मीन की अनुपलब्धता और नेताओं की अनदेखी के कारण मामला अटकता रहा।
हालांकि खड़ावदा से लगभग 2 किलोमीटर दूर सेमरोल में मुक्तिधाम मौजूद है, लेकिन ग्रामीणों की स्पष्ट मांग है कि उनका अपना मुक्तिधाम हो और वह चंबल किनारे ही बनाया जाए।
प्रवासी परिवार की संवेदनशील पहल
गांव का ही एक परिवार, जो अब अहमदाबाद में बस गया है, अपने खर्चे पर मुक्तिधाम बनवाने की इच्छा जता चुका है। लेकिन उनका कहना है –
“हमें केवल शासन से भूमि आवंटन चाहिए। बाकी खर्च हम स्वयं उठाने को तैयार हैं।”
यानी यदि शासन थोड़ी सी संवेदनशीलता दिखाए और जमीन का इंतज़ाम करे, तो गांव को अपना मुक्तिधाम मिल सकता है। लेकिन अफसोस, आज तक यह केवल चर्चा और वादों तक ही सीमित रहा है।
राजनीति और प्रतिनिधियों की उदासीनता
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि 70 साल में कई बार जनप्रतिनिधि बदले, सरकारें आईं और गईं। लेकिन खड़ावदा गांव मुक्तिधाम का सपना पूरा न हो सका।
क्षेत्रीय विधायक और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता ने इस मांग को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। नतीजा यह है कि मुक्तिधाम आज भी केवल प्रस्तावों और फाइलों में दबा पड़ा है।
बरसात में मौत बन जाती है चुनौती
बरसात के दिनों में खड़ावदा गांव के हालात और भी भयावह हो जाते हैं। कीचड़ और पानी से भरे रास्तों पर शव लेकर जाना किसी यातना से कम नहीं। कई बार लोग मजबूरी में अपने ही खेतों में दाह संस्कार कर देते हैं।
गांव की महिलाएं कहती हैं –
“जीते जी तो तकलीफ़ें हैं ही, लेकिन मरने के बाद भी हमें अपमान सहना पड़ता है। यह सोचकर दिल कांप उठता है कि बरसात में यदि किसी की मौत हो जाए तो शव को कैसे ले जाया जाए।”
खड़ावदा गांव मुक्तिधाम की लड़ाई कब पूरी होगी?
गांधीसागर डैम बनने के बाद पुराना खड़ावदा गांव डूब क्षेत्र में चला गया था। आज भी पानी उतरने पर उसके अवशेष दिखाई देते हैं। लेकिन नया खड़ावदा अब भी उस सम्मानजनक इंतज़ार में है कि उसे अपना मुक्तिधाम नसीब हो।
ग्रामीण कहते हैं –
“जीते जी रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए… लेकिन मरने के बाद मुक्तिधाम भी ज़रूरी है। क्या हमें मरने के बाद भी सम्मान नहीं मिल सकता?”
सवाल प्रशासन से
- छोटे गांवों में जहां शेड और मुक्तिधाम बन सकते हैं, तो 5000 की आबादी वाले खड़ावदा में क्यों नहीं?
- क्या जमीन आवंटन जैसी साधारण प्रक्रिया के लिए ग्रामीणों को 70 साल और इंतज़ार करना होगा?
- क्या शासन और जनप्रतिनिधि इस गांव की सबसे बड़ी समस्या को गंभीरता से लेंगे या यह मुद्दा हमेशा की तरह प्रस्तावों और फाइलों में दबा रहेगा?
निष्कर्ष
खड़ावदा गांव मुक्तिधाम केवल एक मांग नहीं है, यह गांव के हजारों लोगों की गरिमा और आत्मसम्मान से जुड़ा प्रश्न है। जीते जी संघर्ष सहने वाले इन ग्रामीणों को कम से कम मरने के बाद सम्मानजनक विदाई का अधिकार तो मिलना ही चाहिए।
अब देखने वाली बात यह है कि प्रशासन, पंचायत और जनप्रतिनिधि कब जागते हैं और कब खड़ावदा गांव को अपना मुक्तिधाम नसीब होता है।
