कंजर – सिर्फ एक जाति नहीं, एक सवाल है हमारे समाज पर
राजस्थान और मध्यप्रदेश की सीमाओं पर बसी एक ऐसी जनजाति जो अक्सर सुर्खियों में रहती है, लेकिन कभी सच्चे अर्थों में समझी नहीं जाती – वह है कंजर जनजाति। जब हम ‘कंजर’ शब्द सुनते हैं, तो दिमाग में एक अपराधी छवि उभरती है। लेकिन क्या हमने कभी उनके पीछे छिपे दर्द, उपेक्षा, आस्था और विवशता को महसूस किया है?

‘कंजर’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के “काननचार” से मानी जाती है, जिसका अर्थ है – जंगलों में विचरण करने वाला। यह शब्द दर्शाता है कि यह समुदाय कभी प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ था। लेकिन समय, सत्ता और समाज ने उन्हें अपराध की ओर मोड़ दिया या यूं कहें – धकेल दिया।
कंजर समुदाय मूलतः राजस्थान के झालावाड़, कोटा, बारां, बूंदी और उदयपुर जिलों में रहता है। ये सीमावर्ती इलाकों में बसते हैं और मध्यप्रदेश के मंदसौर, नीमच, रतलाम, उज्जैन तक इनकी आवाजाही रहती है। ये सीमाएं इनके जीवन का संघर्ष क्षेत्र बन चुकी हैं – जहां एक ओर ये रहते हैं, दूसरी ओर वहीं से इनके ऊपर अपराधों के आरोप लगते हैं।
ब्रिटिश काल में इन्हें ‘क्रिमिनल ट्राइब’ घोषित किया गया था – यानी अपराधी जाति। आजादी के बाद भी इस टैग को हटाने में दशकों लग गए, लेकिन सोच नहीं बदली। समाज और प्रशासन आज भी इनकी पहचान को अपराध से जोड़कर ही देखता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन: आस्था में ढूढ़ते हैं शांति
कंजर जनजाति अपनी सांस्कृतिक परंपराओं में बेहद समृद्ध है। इनकी जीवनशैली भले साधनहीन हो, पर इनकी आत्मा भक्ति और आस्था से भरपूर है।

धार्मिक आस्था और परंपराएं:
- ये लोग चौथ माता को कुलदेवी मानते हैं।
- जोगणिया माता (बेगूं, चित्तौड़गढ़) और हनुमान जी को भी आराध्य देव के रूप में पूजते हैं।
- अलमुंदी और आसपाल जैसे कबीलाई देवताओं को प्रसन्न करने हेतु बकरे, मुर्गे और सुअर की बलि दी जाती है।
- ‘पाती मांगना’ – अपराध से पहले ईश्वर से अनुमति लेना, यह इनकी आस्था का संकेत है।
- ‘हाकम राजा का प्याला’ – एक विश्वास कि उसे पीने के बाद कोई झूठ नहीं बोल सकता।
इनकी पूजा पद्धति और धार्मिक रीतियां बताती हैं कि उनके जीवन में धर्म एक भय नहीं, भरोसा है – भले वह चोरी करने से पहले ही क्यों न हो।

कबीलाई पंचायत और सामाजिक अनुशासन
कंजरों की अपनी मजबूत कबीलाई पंचायत होती है। यह पंचायत समाज के अंदर न्याय और अनुशासन का संचालन करती है। यदि कोई व्यक्ति नियम तोड़े तो उसे दंडित किया जाता है।
अपराध की स्वीकारोक्ति के लिए दर्दनाक परंपराएं अपनाई जाती हैं, जो यह दर्शाता है कि ये लोग भी अनुशासन और मर्यादा में विश्वास रखते हैं – चाहे वह उनके ढंग से क्यों न हो।
इनके घरों की बनावट भी उनकी असुरक्षा का संकेत देती है – आगे दरवाज़े पर किवाड़ नहीं, लेकिन पीछे भागने के लिए खिड़की ज़रूर होती है।
क्या यह अपराध की तैयारी है, या व्यवस्था पर विश्वास की कमी?

कला और जीवनशैली: जीवन की पीड़ा में भी संगीत और नृत्य
कंजर महिलाएं ‘चकरी नृत्य’ करती हैं – जिसमें वे बेहद तेजी से घूमती हैं। यह नृत्य सिर्फ मनोरंजन नहीं, उनकी आंतरिक पीड़ा की अभिव्यक्ति है।
शांति और फुलवा जैसी कलाकार महिलाएं इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।
पुरुष ‘धाकड़ नृत्य’ करते हैं, जो वीरता, शक्ति और सामूहिकता का प्रतीक है।
ढोलक, मंजीरा जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्र इनके सांस्कृतिक अस्तित्व का हिस्सा हैं।
उनकी हर कला में भूख भी है, गर्व भी है, और अस्तित्व की पुकार भी।
अपराध या विवशता: क्या समाज ने उन्हें यह रास्ता दिया?
कंजर समाज पर छोटे-मोटे अपराधों जैसे मवेशी चोरी, मोटरसाइकिल चोरी, कृषि उपकरण और पानी की मोटर की चोरी जैसे कई मामले दर्ज हैं।
लेकिन ज़रा ठहरिए और सोचिए – क्या ये लोग बड़े अपराधों में लिप्त हैं? क्या वे बलात्कार, हत्या, आतंक या संगठित माफिया गिरोहों का हिस्सा हैं?
जब शिक्षा नहीं, रोजगार नहीं, सम्मान नहीं – तो जीवन को चलाने के लिए चोरी बचता है।
मेडिएटर और स्लीपर सेल्स का नेटवर्क
कई बार चोरी के सामान को वापस दिलाने के लिए ‘मेडिएटर’ सक्रिय रहते हैं – जो मालिक से फिरौती लेकर चोरी का सामान लौटा देते हैं।
यह एक पूरा ‘सिस्टम’ बन चुका है – जिसमें कुछ दलालों की भूमिका संदिग्ध है।
शिक्षा और सरकारी योजनाओं का अभाव: कब जागेगा सिस्टम?
सरकारें आती हैं, घोषणाएं होती हैं – लेकिन ज़मीनी हकीकत नहीं बदलती।
- सरकारी स्कूल इनकी बस्तियों में हैं ही नहीं।
- इनकी लड़कियाँ आज भी शिक्षा से वंचित हैं।
- लड़कों को या तो अपराध सिखाया जाता है, या फिर मजदूरी।
यदि इनमें से किसी बच्चे को शिक्षा, स्कॉलरशिप और मार्गदर्शन मिले तो वे भी समाज की मुख्यधारा में आ सकते हैं।
कुछ युवा IAS, पुलिस और प्रशासन में पहुंच चुके हैं, लेकिन ये संख्या इतनी कम है कि मिसाल बनकर रह जाती है – बदलाव नहीं।
संवेदनशील पुलिसिंग और प्रशासनिक सुधार की जरूरत
पुलिस का रवैया अक्सर इनके प्रति कठोर होता है।
अक्सर संदेह के आधार पर हिरासत में लिया जाना, पूछताछ के दौरान मारपीट और समुदाय को अपराधी समझकर नज़दीक न जाना – यह सब इन्हें और अलग-थलग करता है।
पुलिस से बचने के लिए इनका सूचना तंत्र बहुत मजबूत होता है।
बस्ती में पुलिस आने से पहले ही महिलाएं और बच्चे सतर्क हो जाते हैं।
क्या यह अपराध से बचाव है या डर से बचाव?
समस्या का समाधान: पुनर्वास नहीं, पुनर्योजना चाहिए
अगर हम वाकई कंजर समाज को अपराध से दूर करना चाहते हैं,
तो उन्हें शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सम्मान देना होगा।
- विशेष पुनर्वास केंद्र
- निःशुल्क स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम
- बालिकाओं के लिए छात्रावास
- समाज के साथ ‘समावेशी संवाद’
इनके बच्चों को भी वही शिक्षा और अवसर चाहिए जो हमारे बच्चों को मिलते हैं।
वरना अगली पीढ़ी भी पिछली की गलियों में ही खो जाएगी।
निष्कर्ष: क्या हम उन्हें बदलने का मौका देंगे?
कंजर समाज को अपराधी कह देना आसान है।
लेकिन उन्हें इंसान मानना – यही असली मानवीयता है।
जब अगली बार आप कंजर समाज का नाम सुनें –
तो सिर्फ रिकॉर्ड में दर्ज अपराध मत देखिए,
उसके पीछे छिपे एक बच्चे का सपना देखिए – जो कहता है:
“क्या मैं भी स्कूल जा सकता हूँ?”
यदि हम उनका हाथ थामें,
तो शायद वे भी एक दिन
सिर्फ “कंजर” नहीं,
बल्कि भारत के नागरिक कहलाएंगे – सम्मान से, समानता से।
